लंगूरों से लड़ाई-----
अगले दिन सुबह जल्दी ही आंख खुल गयी ! कुछ मन में उत्साह भी था नयी अपरिचित पहाड़ी तीर्थ यात्रा का ! पर मन थोडा खिन्न भी था क्योंकि साथ में दो भुत भी चिपक गए थे ! सुबह उठकर सार्वजनिक शोचालय में जाकर निवृत्त हुआ ! आशुतोष को सामान रक्छा का दायित्व देकर गंगा जी के स्नान के लिए चल दिया ! हरिद्वार में प्रशासन ने गंगा जी के तेज प्रवाह से बचाने के लिए जंजीरे लगवा रखी है पर यहाँ ऐसा कुछ नहीं था ! अगर पैर से जमीन छूटी तो पता नहीं गंगा मैया कौन से शहर में जाकर निकालेंगी ! चलो तब तक दोनों साधू लोग भी दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर घाट पर आ गए थे ! पानी बहुत ठंडा था दो तीन डुबकी लगाने के बाद पूरा शरीर ठण्ड से ऐंठ गया ! मैंने मन में कहा की बेटा निकल लो ज्यादा धार्मिक न बनो वर्ना भगवान को प्यारे हो जाओगे !
हम लोग रास्ते के लिए आवश्यक कैलोरी और डीहाईड्राशन से बचने के लिए पानी भी पीते जा रहे थे ! लगभग 5 किलोमीटर चलने के बाद बीहड़ जंगल शुरू हो गया था हम लोगो ने पीछे पलटकर देखा तो साधू महाराज नहीं दिखे ! तब हम लोग एक पेड़ के नीचे बैठकर उनका इंतजार करने लगे ! आशुतोष ने भी चने निकाल लिए थे हम दोनों चने खाने में व्यस्त थे तब तक न जाने कहाँ से एक लंगूर की फॅमिली टपक पड़ी ! हम दोनों ने एक दूसरे की शकल देखी ! आशुतोष ने झट से अपने सारे चने दूर फ़ेंक दिए , वो लंगूर उन्हें खाने में व्यस्त हो गए तब तक मुझे मौका मिल गया था मैंने अपने सारे चनो से अपना मुंह भर लिया ( आखिर हम भी तो लंगूरों के ही वंशज हैं ) और जो हाथ में बचे उन्हें दूर फ़ेंक दिया. जब लंगूरों के चने ख़त्म हो गए तो वो मेरी तरफ देखे और में उनकी तरफ!....
आशुतोष ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कह रहा हो काश में भी चने अपने मुह में भर लेता ...
फिर उन लंगूरों ने वो किया जिसके लिए में बिलकुल भी तैयार नहीं था ....
उनमे से एक नर लंगूर जो सबसे मोटा था और गिरोह का लीडर भी उसने मेरा थैला छीनने के लिए झपट्टा मारा ! हम लोगो ने एक बार तो उन्हें भगा दिया ... वो अभी भी मुझे घुड़की दे रहे थे ..
फिर मैंने लंगूरों से कहा की दादा क्यों हमारे धैर्य की परीक्चा ले रहे हो ?
एक तो सारे चने खा गए और एक दो कपडा है वो छीन रहे हो
अगर तुम यहाँ के राजा हो तो हम भी ब्रूस ली के चेले हैं, एक बार जो हमारे दिमाग की हट गयी तो इन्हीं पहाड़ों पर भगा भगा कर मारेंगे और कोई बचाने भी नहीं आयेगा....
मेरे इतना कहते ही पता नहीं क्यों वो नर लंगूर इतनी तेज मेरी तरफ दोडा ..(शायद मेरी बात उसकी समझ में आ गयी थी )....
रुक तेरी तो ...... मैंने साइड से पत्थर उठाकर दे मारा , वो पड़ गया उसकी पीठ पर , "भद्द " की आवाज आई ..
सारे लंगूर ची ची घुर्र घुर्र करके मेरी तरफ झपटे ,,, मैंने भी जो पत्थर हाथ में आया जल्दी जल्दी उनकी तरफ फेंकना शुरू किया , आशुतोष की डर के मारे हालत ख़राब थी ......
मुझे किसी भी तरह उनको अपने से दूर रखना था , पास आकर वो मेरी जो दुर्गति करते ये में अच्छी तरह जानता था !
आशुतोष मुझे समझा रहा था की मत मर यार , सारे लंगूर इकठ्ठा होकर हम दोनों को उल्टा करके इन्ही पहाड़ियों से लटकायेंगे ......
तब तक दोनों साधू महाराज आते दिखाई दे गए पहले तो दोनों हमारा और लंगूरों का युद्ध देखकर रुक गए फिर धीरे से बोले बेटा अब पत्थर नहीं मारना ! अब भई बड़े बुजर्ग थे और ऊपर से साधू बाबा मैंने भी बात मान ली ! वे मुझसे बोले तुम पीछे हटो ...
फिर उन्होंने अपनी झोली से प्रसाद निकाला और लंगूरों को देना शुरू किया अब लंगूर भी शांत थे और मैं भी ! फिर हम लोग आगे बढ चले लेकिन जिस लंगूर को मैंने पत्थर मारा था वो मुझे अभी भी घूरकर देख रहा था जैसे कह रहा हो कि बेटा अभी तो बच गया अगली बार देख लेंगे ......
मैंने भी उसे घूरकर देखा और चल दिए अगले पड़ाव पर .....
आगे........
साधूओं की जादूगरी, नीलकंठ महादेव दर्शन , जंगल में रात्रि विश्राम
बंदरों और लंगुरो से तो सारा जग परेशान है। अयोध्या के डकैत बंदर तो आदमी की जेब में हाथ डाल कर मालमत्ता निकाल लेते हैं। आदमी ठगा सा खड़ा रह जाता है।
ReplyDeleteवाह! सोम जी यह भी खूब रही.
ReplyDeleteजानवरों की भाषा को भी समझने वाला चाहिये.